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गीता-सार

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गीता सार तो बहता है
हमारे शरीर में
लहू की तरह ।
हर भारतीय जानता है इसे
मानता नहीं
यह अलग बात है ।
संसार नश्वर है
जानते है सब लेकिन
जमा करते हैं सौ साल के लिये
पता नहीं एक पल का ।
सत्य एक ही है
प्रभुनाम ।
यह भी जानते हैं सब
यह भी घुट्टी में पिलाया
जाता है यहां ।
पैदा होते ही लिखते हैं
ज़ुबां पर
ऊं
शहद से
ताकि मीठा समझ निगल लें
और बस जाये उसके मन में
शरीर में,
प्राणवायु की तरह ।
ऊं
जो सार है संसार का ।
कर्म प्रधान है यह जीवन
जैसा कर्म वैसा धर्म ।
बिना हरिकृपा तो उसका
नाम भी नहीं ले सकता कोई
हरि कृपा पाने के लिए
चित्त को निर्मल करना पड़ता है
देखना पड़ता है हर जीव में
उसी प्रभु का रूप।
तब हम किसी को कष्ट नहीं देंगे और वृति हमारी
सद्वृति हो जायेगी ।
कहते हैं न
सिया राम मय सब जग जानि
करहूं प्रणाम जोड़ि जुग पानि ।

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