बात बहुत पुरानी है । मेरी मां वृन्दा वन के बिहारी जी की बहुत भक्त थी । अक्सर ही कहती बिहारी जी मुझे बुला रहे हैं और हम सब बच्चों को बड़ी बहन के भरोसे छोड़ वृन्दावन चली जाती । घर में लड्डू गोपाल जी को नहलाये खिलाये बगैर कुछ न खाती । हमारे घर में अगर समोसे भी आते तो पहले भगवान जी के भोग लगता ।
एक बार वह अपनी एक सखी को ले कर वृन्दा वन के लिये निकली । वहां वह अक्सर एक आश्रम में ठहरती थी सो वहां के लिये आटा दाल चावल चीनी सब बांध के ले जाती थी । उस दिन भी कई थैले बैग साथ थे । भैया ने अच्छे से दोनों को गाड़ी में बिठा दिया । गाड़ी बहुत लम्बी थी । वृन्दावन पहुंचने पर देखा इन का डिब्बा जहां आया वहां प्लेटफार्म खत्म हो चुका था । साथ बैठे मुसाफिरों ने दोनों बूढी औरतों को किसी तरह उतार दिया और हिदायत भी दी कि माताजी उतना ही सामान ले के चला करो जितना उठा सको । खैर गाड़ी रवाना हो गई और ये दोनों खड़ी सोचने लगी अब बाहर कैसे निकलेंगी । अंधेरा घिरने लगा था । दोनों को घबराहट होने लगी पर मेरी मां की आदत थी कोई भी कठिन परिस्थिती होने पर कहती जो हरि इच्छा । उसदिन भी यही कह कर सामान उठाने लगी तो देखा एक दस बारह साल का लड़का पास आ कर बोला ‘ मैं बाहर ले चलूं माता’
दोनो बूढियों की जान में जान आई और उसे सामान पकड़ा ढेरों आशीर्वाद देने लगी । बच्चे ने सब झोले बैग लटका लिये और आगे आगे चलने लगा । बीच बीच में रूक कर हिदायत देता कि आगे जमीन नीची है गिर मत जाना । स्टेशन के बाहर आ के उसने सामान रखा और बोला अब तुम रिक्शा ले लो पर पहले सामान संभाल लो । कितना सामान ले के चलती हो । मां सामान संभाल कर अपनी थैली टटोल कर पैसे निकालने लगी तो वो कहीं दिखा ही नहीं । दोनों सखियां थोड़ी देर इंतजार करती रही फिर उसे याद करते हुये आश्रम के लिये रिक्शा में बैठ गई । मां को पक्का विश्वास था कि वो उसके बिहारी जी ही थे । ऐसी है बिहारी जी की माया । वह कहां किस रूप में आ कर अपने भक्तों की सहायता करेंगे यह कोई नहीं जानता । बस मन का विश्वास पक्का होना चाहिये ।
बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जय ।
शशि पाठक 8875593881