Story वर्चस्व By - January 15, 2021 0 Share FacebookTwitterPinterestWhatsAppLinkedinEmailTumblrTelegramLINEViber लघुकथा पुरुष का भारी स्वर -” पर यह संसार तो हम पुरुष ही चलाते हैं ।” गर्वीली , वक्र मुस्कान । ” हुम्म्म । ” स्त्री के स्वर से लापरवाही झलक रही थी । पुरुष का भारी स्वर दर्प से लबरेज़ था -” मंगल ग्रह पर फ़तह हमारी कोशिशों का फल । आगे – आगे देखती चलो , कितने झंडे गाड़ेंगे हम। ।” “होsssगा मुझे क्या फ़र्क पड़ेगा इससे ? हमें तो वो ही दोयम दर्ज़ा दोगे तुम । “ ” देखो ! और अब तो मानो तुम कि हम श्रेष्ठ हैं । तुम तो सदियों से ………. पिता पति बेटे के .इशारों पर चलने और नाचने वाली । “ सामंती युग जैसी वो ही आवाज़ थी इस बार भी । हेकड़ी भी वही । स्त्री छाया बोल पड़ी –” मेरे तो बस्स दो हाथ दिनभर खटने के लिये ,एक अदद मेरा मन , मुस्कान और… मेरी कोख ।” भारी स्वर के साथ पुरुषत्व फैल गया । “बस्स ….इस पर इतना गुमान ठीक नहीं । हमारी खोजों और आविष्कारों के लिये क्या कहोगी , सब हमारी बनिस्पत ।” वो बोल – बोल कर थक गया और अब चुप्पी साधे निरुत्तर स्त्री को घूरे जा रहा था । और स्त्री चिरमयी , विजेता मुस्कान के साथ , नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा , जीवनदान देती रही …। विभा रश्मि