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वर्चस्व

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लघुकथा

पुरुष का भारी स्वर -” पर यह संसार तो हम पुरुष ही चलाते हैं ।”
गर्वीली , वक्र मुस्कान ।
” हुम्म्म । ” स्त्री के स्वर से लापरवाही झलक रही थी ।
पुरुष का भारी स्वर दर्प से लबरेज़ था -” मंगल ग्रह पर फ़तह हमारी कोशिशों का फल । आगे – आगे देखती चलो , कितने झंडे गाड़ेंगे हम। ।”
“होsssगा मुझे क्या फ़र्क पड़ेगा इससे ? हमें तो वो ही दोयम दर्ज़ा दोगे तुम । “
” देखो ! और अब तो मानो तुम कि हम श्रेष्ठ हैं । तुम तो सदियों से ………. पिता पति बेटे के .इशारों पर चलने और नाचने वाली । “
सामंती युग जैसी वो ही आवाज़ थी इस बार भी । हेकड़ी भी वही ।
स्त्री छाया बोल पड़ी –” मेरे तो बस्स दो हाथ दिनभर खटने के लिये ,एक अदद मेरा मन , मुस्कान और… मेरी कोख ।”
भारी स्वर के साथ पुरुषत्व फैल गया ।
“बस्स ….इस पर इतना गुमान ठीक नहीं । हमारी खोजों और आविष्कारों के लिये क्या कहोगी , सब हमारी बनिस्पत ।”
वो बोल – बोल कर थक गया और अब चुप्पी साधे निरुत्तर स्त्री को घूरे जा रहा था ।
और स्त्री चिरमयी , विजेता मुस्कान के साथ , नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा , जीवनदान देती रही …।
विभा रश्मि

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