आत्मा के उत्थान बिना आजादी निरर्थक ।
– अनुपम जौली
क्या हमारे देश की मुख्य समस्या गरीबी है?????
यदि हाँ, तो बलात्कार, भ्रष्टाचार, हत्या, धार्मिक उन्माद, नशा, आतंकवाद इत्यादि गरीबो की देन है ? जब कोई प्रोफेसर लोकसभा पर हमले का मास्टरमाइंड बनता है, जब कोई कंप्यूटर प्रोफेशनल किसी बम विस्फोट या आतंकवाद का मुख्य सरगना पाया जाता है तब एक प्रश्न उठता है क्या इन समस्यों को बनाने वाले गरीब है ??? लालच तो गरीबी, अमीरी देख कर नहीं आती। बलात्कार, नशा, भ्रष्टाचार का गरीबी अमीरी से कोई लेना देना नहीं है।
आज सड़क पर कचरा फेकने वालो में गरीबी, अमीरी का अनुपात एक ही पाया जायेगा। क्यों हम दुसरे देश में सभ्य तरीके से रहते है ? पर भारत में नहीं ? हम सभी दूध की जगह पानी का लोटा ही डालते रहे है। हम बदलने को तय्यार नहीं है।
महर्षि अरविन्द को कौन नहीं जनता ? श्री अरविन्द बड़ौदा में अध्यापन करते-करते क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़ गए थे। ‘कर्मयोग’ तथा ‘युगान्तर’ जैसे समाचार पत्रों के द्वारा उन्होंने आजादी की अलख जगाई थी। क्रांति, क्रांति और क्रांति की मशाल लिए श्री अरविन्द जब अलीपुर बम कांड में गिरफ्तार हुए और उनको जेल हुई। तो जेल का उपयोग भी देश की आजादी के लिए हल हेतु चिंतन, मनन में बीता। अपनी कैद के दौरान उनको आध्यात्मिक अनुभव हुआ जिसने उनको बहुत प्रभावित किया और एक योगी बनने के रास्ते पर ले गया।
जेल से निकलने के बाद ब्रिटिश हुकूमत से दूर वे पाण्डिचेरी चले गए तथा योग-साधना व ध्यान को स्वयं में आत्मसात करने लगे । उनके कई क्रन्तिकारी साथियों, मित्रो व परिजनों को यह अच्छा नहीं लगा। उनके छोठे भाई बारीन्द्र कुमार भी क्रांति की मशाल थामे थे। अपने बड़े भाई का ऐसे पाण्डिचेरी चला जाना बारीन्द्र को बिलकुल नहीं सुहाया।
उन्होंने श्री अरविन्द को पत्र लिख कर अपनी नाराजगी जाहिर की। इस पर श्री अरविन्द ने उनको एक पत्र 7 अप्रैल, 1920 को लिखा जो हर भारतीय को पड़ना चाहिए। श्री अरविन्द जानते थे की आजादी तो हमें जरुर मिलेगी और आजादी भी उनके जन्मदिन (15 अगस्त 1872) के दिन ही मिली। पर भारत या भारतीय व्यक्ति का जीवन या आत्मा का स्तर उच्चतर हुए बिना आजादी का महत्त्व क्या होगा ? भारत को श्रेष्ठ, भारत के श्रेष्ठ नागरिक ही बना सकते है। प्रस्तुत पत्र श्री अरविन्द के विचारधारा व सोच को स्पस्ट करता है की वो भारत के आगे का स्वर्णिम भविष्य बनाने के लिए सही अर्थो में प्रयत्नरत थे। आज के परिपेक्ष में भी एसा ही लगता है की भारत की आत्मा उन्नत होगी तो ही भारत श्रेष्ठ होगा।
जय भारत।
प्रिय बारिन्द्र, पाण्डिचेरी, 7.4.1920
मैं अपने साधनामार्ग को पूर्णयोग कहता हूँ। परमेश्वर की कृपा से ही यह मार्ग मुझे उपलब्ध हुआ है। अपने प्राचीन ऋषिमुनियों द्वारा लिखित योग विषयक सब ग्रन्थों का मैंने अध्ययन किया है। मैं उन सब पद्धतियों का संबंध साध रहा हूँ। पूर्व-काल में मेरा मन चंचल था। अब वह स्थिर हुआ है।
तुम्हारा एक प्रश्न है कि मैं राजनीति से क्यों अलग हो गया? उसके उत्तर में मैं कहना चाहता हूँ कि इस समय भारतवर्ष में जो राजनीति चल रही है वह वास्तव में भारत की नहीं है। वह तो बाहरी देशों से आई हुई राजनीति है। विदेश की राजनीति का वह भ्रष्ट अनुकरण मात्र है।
हमें चाहिए कि हम छाया के पीछे न दौड़ें, अपितु मूल वस्तु को ग्रहण करें। अर्थात् प्रथमत: हम भारत की आत्मा को जाग्रत करें। जो भी कार्य हम करें, वह प्रत्येक कार्य, भारत की आत्मा के अनुकूल रहना चाहिए।
इस समय कुछ लोग विदेश की राजनीति से भारत के अध्यात्म को जोडऩे का प्रयास कर रहे हैं। उनकी स्थिति ‘दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम’ जैसी हो रही है। फूटे घड़े में पानी भरने जैसा यह प्रयास है। वे लोग प्रभु रामचन्द्र जी की मूर्ति मंदिर में स्थापित करना चाहते हैं। स्वयं प्रभु रामचन्द्र जी को बुलाने की हमारी अभिलाषा है।
सबके साथ मिल-जुल कर हम भी कार्य कर सकेंगे। परन्तु किस बात के लिए? केवल ऊपर लिखे हुए ध्येय की प्राप्ति के लिए। केवल ऊपर लिखे हुए मार्ग से चलने के लिए। किसी एक व्यक्ति के कार्य की अपेक्षा यदि सांधिक रूप से यह कार्य किया जाय, तो वह दस गुणा बढ़ेगा, यह बात निश्चित है। परन्तु वह समय अभी नहीं आया है। अनुचित जल्दबाजी करने से ध्येय की प्राप्ति ठीक से नहीं हो पाएगी।
संघ ही हमारे आदर्शों का प्राथमिक प्रकट रूप है। जिन्हें हमारा आदर्श मान्य होगा, जिनके हृदयों में उसके प्रचार की तड़पन उत्पन्न होगी, वे लोग आप ही आप एकत्रित होंगे। उन सब में मन ही मन एकता उत्पन्न होगी। फिर ये सब लोग अन्यान्य स्थानों में कार्य करेंगे। इस प्रकार उन सभी कार्यों को धर्मसंघ का रूप प्राप्त होगा। वह संघ सबको आकर्षित करेगा। इसी में से क्रमश: देवजाति उत्पन्न होगी। इस समय यही विचार मेरे मन में बसा है। सब कुछ भगवान के हाथों में है। वे मेरे द्वारा यह कार्य करा रहे हैं।
भारत की दुर्बलता का प्रमुख कारण पारतंत्र्य नहीं है। न दरिद्रता और आध्यात्म का अभाव ही है। भारत की दुर्बलता का मूल विवेकहीनता में है, विचार शक्ति के अभाव में है। आज विश्व में नवीन ज्ञान का उदय हो रहा है। इस समय जो समाज ठीक ढंग से सोचेगा, समझेगा और विश्व के सत्य ढूंढ निकालेगा, वही प्रगति कर पाएगा। वही सबसे आगे बढ़ेगा।
आज हमारे देश में केवल कुछ बड़े लोग विचार करते हैं। अन्य सब लोग कुछ भी सोचते नहीं। वे बहुत हीन स्तर का जीवन बिताते हैं।
हमारे बुद्धिमान पूर्वज विशाल तथा गहन विचार समूद्र में डुबकियां लगाते रहे और विपुल ज्ञानरत्न प्राप्त करते रहे। तब ही वे अनेक प्रकार के सुधार कर पाए। आज हमारी विवेक शक्ति कम हो गई है। अत: हमारा सुधार वहीं का वहीं थम गया है। धर्म का वास्तविक रूप नष्ट हुआ है। और केवल दिखावा बचा है। आध्यात्मिक भावना नष्ट हुई है। उसकी केवल छाया के ढोल पीटे जा रहे हैं। जब तक यह स्थिति है, भारत का उद्धार असंभव है।
भावमात्र से ठोस कार्य का निर्माण नहीं होता। विचारों का गांभीर्य, धैर्य, वीरवृत्ति साहस, अथक परिश्रम, आनन्दमयी वृत्ति, ये सब गुण जहाँ होंगे वहीं ठोस कार्य का निर्माण होगा। उसी समाज की उन्नति हो पाएगी। मेरे इस कार्य के लिए मुझे लक्ष-लक्ष शिष्यों की आवश्यकता नहीं है। जिन्होंने अपने अहंकार को छोड़ दिया है और जिन्होंने आत्मसमर्पण का भाव धारण किया है। ऐसे लोगों से भी भारत के उद्धार का कार्य सम्पन्न होगा। मेरी मातृभूमि में इसी समय आने की मेरी इच्छा नहीं है। ऐसा मैं क्यों कहूँ कि अभी अपने देश की वैसी योग्यता नहीं है? ऐसा मैं क्यों कहूं कि अभी अपने देश की वैसी योग्यता नहीं है? अभी तो मेरी ही सिद्धता नहीं है। मैं अभी कच्चा हूँ। कच्चा मनुष्य कच्चे मनुष्यों में जाकर क्या दे पाएगा?