श्रीगणेश चतुर्थी , सिद्धिविनायक व्रत, कलंक चतुर्थी
यह भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को किया जाता है । इस दिन गणेशजी का मध्याह्न में जन्म हुआ था, अतः इसमें मध्याह्न व्यापिनी तिथि ली जाती है । यदि वह दो दिन हो या दिनो दिन न होतो ‘ मातृविद्धा प्रशस्यते ‘ के अनुसार पूर्वविद्धा लेनी चाहिये । इस दिन रवि या भौमवार हो तो यह ‘ महाचतुर्थी ‘ हो जाती है । इस दिन रात्रि में चन्द्रदर्शन करने से मिथ्या कलड्क लग जाता है । उसके निवारणके निमित्त स्यमन्तककी तथा श्रवण करना आवश्यक है । अस्तु, व्रतके दिन प्रातः स्त्रानादि करके ‘ मम सर्वकर्मसिद्धये सिद्धिविनायकपूजनमहं करिष्ये’ से संकल्प करके ‘ स्वास्तिक ‘ मण्डल पर प्रत्यक्ष अथवा स्वर्णादि निर्मित मूर्ति स्थापन करके पुष्पार्पण पर्यन्त पूजन करे और फिर १३ ‘ नामपूजा ‘ और २१ ‘ पत्रपूजा ‘ करके धूप, दीपादि से शेष उपचार सम्पन्न करे । अन्त में घृतपाचित २१ मोदक अर्पण करके
‘ विघ्रानि नाशमायान्तु सर्वाणि सुरनायक । कार्यं मे सिद्धिमायातु पूजिते त्वयि धातरि ॥’
से प्रार्थना करे और मोदकादि वितरण करके एक बार भोजन करे । इस दिन राजपूताना प्रान्तमें प्राचीन शैली की पाठशालाओं के छात्रगण बड़ी धूमधाम से’ गणपति चतुर्थी ‘ मनाते हैं और महाराष्ट्र में इसके महोत्सव होते हैं ।
श्रीकृष्ण की द्वारकापुरी में सत्राजितने सूर्य की उपासना से सूर्य समान प्रकाशवाली और प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देनेवाली ‘ स्यमन्तक ‘ मणि प्राप्त की थी । एक बार उसे संदेह हुआ कि शायद श्रीकृष्ण इसे छीन लेगे । यह सोचकर उसने वह मणि अपने भाई प्रसेन को पहना दी । दैवयोग से वन में शिकार के लिये गये हुए प्रसेन को सिंह खा गया और सिंह से वह मणि ‘ जाम्बवान् ‘ छीन ले गये । इससे श्रीकृष्ण पर यह कलङ्क लग गया कि ‘ मणि के लोभ से उन्होंनें प्रसेन को मार डाला।’ अन्तर्यामी श्रीकृष्ण जाम्बवान की गुहा में गये और २१ दिन तक घोर युद्ध करके उनकी पुत्री जाम्बवती को तथा स्यमन्तक मणि को ले आये । यह देखकर सत्राजित्ने वह मणि उन्हीं को अर्पण कर दी । कलङ्क दूर हो गया ।’