राम समाधि आश्रम मनोहरपुरा, जयपुर
यह पुण्यस्थल मनोहपुरा ग्राम के निकट एक अत्यन्त रमणीय साधना स्थल है। यहाँ परमसन्त ठाकुर साहिब श्री रामसिंहजी, उनकी धर्मपत्नी मातुश्री गोपाल कॅँवर और उनके सुपुत्र महात्मा श्री नारायणसिंहजी का भव्य समाधि मन्दिर निर्मित है । यहाँ का शान्त, स्वच्छ, प्राकृतिक वातावरण आत्म साधना के लिए सर्वथा अनुकूल है । चारों ओर लगे हरे-भरे सुन्दर पेड़-पौधे मन को लुभाते हैं। साधकों के लिए यहाँ समुचित आवासीय व्यवस्था है । साथ ही सत्संग-भवन, ध्यान कक्ष, पुस्तकालय, भोजनालय, बिजली-पानी आदि की पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अनेक भक्तगण समय-समय पर पधार कर यहाँ ध्यान भजन का लाभ उठाते हैं।
आश्रम के प्रणेता ठाकुर साहिब श्री रामसिंहजी
ठाकुर साहिब श्री रामसिंहजी एक आदर्श गृहस्थ संत थे। आपका जन्म इसी ग्राम में एक सभ्रान्त राजपूत परिवार में 3 सितम्बर सन् 1898 को हुआ था। आपके पूज्य माता-पिता बड़े धर्मपरायण सद्गृहस्थ थे, जिनके गहरे संस्कार आपको विरासत में मिले । होश सम्भाला तब से आपने सेवा व सत्य को जीवन का सम्बल बनाया, कर्त्तव्य को साधना समझा और सादगी स्वीकार कर, श्रद्धा-विश्वास के साथ, समर्पित भाव से एक निराला जीवन जी गये ।
युवा होने पर आपने जयपुर राज्य पुलिस में सेवा प्रारम्भ की और कर्तव्य-निष्ठा के आधार पर आप शीघ्र ही थानेदार के पद पर सुशोभित हो अनेक स्थानों पर सेवारत रहे।
आपकी सत्यनिष्ठा सतयुग की कल्पना से भी परे थी। पुलिस-सेवा में रहकर आपने सच्चाई व कर्त्तव्यपरायणता के जो बुलन्द कीर्तिमान स्थापित किये वे युगों तक जन-मानस को अनुप्राणित करते रहेंगे।
सेवाकाल में ही आपका अपने सद्गुरु महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज से अंतर्मिलन हुआ। आप सर्वस्व समर्पण कर पूर्णतः उनके हाथों बिक गये। आपा विसर्जित हुआ; मात्र अपने आराध्य और उनकी अन्तरंग अनुभूति शेष रही। आपका आत्म समर्पण अप्रतिम था, जो सारे आध्यात्म का सार-सूत्र है।
सन्त महापुरुष का व्यक्तित्व बड़ा निराला था, मानों साकार परमेश्वर विराजे हों; प्रेम की निर्मल भागीरथी, जिसमें भक्तों की व्यथा-पीड़ा धुल जाती और सहज ही अन्तर्यात्रा शुरु हो जाती। स्वभाव में बाल-सुलभ सरलता थी। चेहरे पर सदा प्रफुल्लता नाचती रहती, अहोभाव से भरे पूरे रहते। हर काम सजग हो बड़े मनोयोग से करते, सदा भावमग्न रहते, आशा-विश्वास से भरे, निश्चिन्त बने रहते और ईश्वरीय इच्छा को सर्वोपरि मानते। संकेत करते कि “हे प्रभु! आपकी इच्छा पूरी हो, मैं उसी में राजी रहूँ। ऐसा भाव बना रहे, क्योंकि हमारा हित किसमें है, वह बेहतर जानता है।”
आप फरमाते कि परमात्मा हमारे भीतर ही विराजमान है; केवल भाव से पुकारने की देर है। अपना आपा (अहं) ही मिलन में बाधा है । श्रद्धापूर्वक उसके हो जाने पर, मैं की भ्रमणा आसानी से मिट जाती है। बेगरज़ सेवा व प्रेम को आप सर्वोत्तम साधना बताते।
सन्त महापुरुष प्रेम के अगाध सागर थे, जिसमें अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते। अपने प्रेम-पाश में बांध कर आप आगन्तुकों को अंतर्यात्रा पर लिए चलते । सम्मुख होते ही देहाध्यास टूटने लगता,
दुनियाँ बिसर जाती और मन विश्रान्त हो
आत्मानन्द में डूबने लगता। प्रेमीजनों में आप श्रद्धाभाव जगाते हुए, सबह शाम 15-20 मिनिट ध्यान में विराजने का संकेत करते।
आपने जीवन को परमपिता परमात्मा की पावन धरोहर समझा । प्रत्येक कर्म को पूजा समझा, नेक कमाई का अन्न आपका प्रसाद बना; निस्पृह सेवा व स्नेह से उसकी अर्चना की, कथनी-करनी को एक रखा, श्रद्धा विश्वास को अपना सम्बल बनाया और सीधा-साधा, सरल सुखद
जीवन जिया। वस्तुतः उनका जीवन अनुकरणीय रहा है ।
माघ कृष्णा तृतीया, दिनांक 14 जनवरी 1971 को मकर संक्राति पर्व पर आपने पार्थिव शरीर से विदा ली। जीवन धन्य हुआ। जिस स्थान पर आपकी पावन-देह का अग्नि संस्कार हुआ वहीं पर यह भव्य समाधि-मन्दिर निर्मित है, जहाँ साधक-भक्त उनकी चिन्मय उपस्थिति अनुभव करते हैं।