भौतिकता का जाल और उलझती ज़िंदगी
जीवन की आपाधापी में हिसाब लगाने का वक्त ही नहीं मिलता कि जो पाया वो बड़ा है या जो इस भाग दौड़ में खो दिया वह बड़ा था।
बस एक दौड़ है, बिना सोचे, देखा-देखी में इसमें हम सब शामिल हो गए हैं। जीवन की सच्चाई से दूर, कल्पना के झूले में हिलोरे लेते हुए हम धरती पर तो पांव रखना ही नहीं चाहते। रंगीन सपने देखते हुए साधनों को एकत्र करते चलते हैं और सोचते हैं इन्हीं साधनों से सुखी हो जायेंगे।
इन साधनों को प्राप्त करने की दौड़ में दौड़ते हुए सही गलत का अंतर भी खो देते हैं। कुछ सही राह पर चलने वाले आर्थिक तंगी में भी इन साधनों को पाने के लिए तरह-तरह के तनाव मोल ले लेते हैं और कुछ तो गलत राह ही पकड़ लेते हैं।
मृग तृष्णा का जाल तो इन्द्रजाल है, इसका कोई अंत नहीं। सुविधाओं के लिए वस्तुएं जुटाना गलत नहीं है परंतु यह समझना कि यही सुख प्रदान करने वाले साधन हैं, मूर्खता ही है।
यदि साधनों की सम्पन्नता से सुख मिलता तो बुद्ध और महावीर राजपाट छोड़ कर शान्ति की खोज में क्यों जंगलों की खाक छानते। पश्चिमी देशों के लोग आत्मिक शांति के लिए भारत की ओर न मुड़ते।
एक बार रूक कर इस दौड़ के परिणाम पर दृष्टि डालना अति आवश्यक है।
आज जो रिश्ते नातों में कड़वाहट दिख रही है, परिवार टूट रहे हैं, बिखर
रहे हैं और घर के वृद्ध जन, माननीय सदस्य बोझ समझे जा रहे हैं, उसका एकमात्र कारण यह अंधी दौड़ ही है।
इस जाल में सभी उलझते जा रहे हैं। सारे हथकंडे अपना कर साधन जुटाने के चक्कर में अपराध बढ़ते जा रहे हैं। असुरक्षा की भावना चरम पर है।
सच है….
ज़िंदगी तो बस रह गई उलझ कर भौतिकता के जाल में।
जागूंगा कब, बुद्ध महावीर की तरह, तोडूंगा इस जाल को।।
स्नेह प्रभा परनामी