फरिश्ता (लघुकथा)
मेला भ्रमण के दौरान चिंतामणि से बच्चे खिलौने दिलाने की जिद कर रहे थे। उधर जेब मुंह चिढ़ा रही थी। उन्होंने पत्नी की ओर देखा तो वह धीरे से बोली -‘दो- ढाई सौ रुपए करीब पड़े हैं मेरे पास।’
बेमन से बच्चों के साथ चिंतामणि दम्पति खिलोने की दूकान के सामने जा खड़े हुए। बच्चों को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। खिलौने देखकर वह उछल कूद करने लगे। दूकान के मालिक एक वृद्ध महाशय बच्चों को एक एक खिलौना दिखाने लगे। बच्चों ने एक रोबोट और एक नाचने वाली गुड़िया पसंद कर ली।
“कितने रुपए के हुए दादाजी दोनों खिलौने ?”जेब से रुपये निकालते हुए चिंतामणि ने पूछा।
“डेढ़ सौ और ढाई सौ कुल चार सौ रुपए हुए ।”
” कुछ कम करिए,चार सौ तो ज्यादा है।”
“बाबूजी! बच्चों के आयटम में ज्यादा हम लोग नहीं कमाते, जो मिल जाता है ठीक है। “वृद्ध महाशय ने हाथ जोड़कर कहा।
चिंतामणि ने पत्नी से रुपए लिए और अपनी जेब से रुपये मिलाकर गिनने लगा।
“कोई बात नहीं बाबूजी, रुपए कम हैं तो बाद में दे जाइए….अभी मेला खत्म होने में दस दिन हैं।”वृद्ध महाशय चिंतामणि दम्पति के चेहरे के हाव-भाव पढ़ते हुए बोले।
“अरे नहीं, हम दो-तीन दिन बाद ले जाएंगे। “चिंतामणि हाथ जोड़कर बोला।
“बाबूजी, बच्चे भगवान का रूप होते हैं…उनका मन नहीं मारना चाहिए….आप ले जाइए… पैसे आते रहेंगे।”खिलौने पैक करते हुए वृद्ध महशय बोले।
खिलौने पाकर प्रफुल्लित बच्चो को देखकर चितामणि सोचने लगा कि -अभावो की जऺग में दुनिया शायद ऐसे ही लोगों पर टिकी है। उसे लगा उसने जैसे इसानियत की सीख देते हुए फरिश्ते को साक्षात देख लिया है।
राजकमल सक्सेना
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