एक बार भगवान श्रीकृष्ण के मन में आया कि आज गोपियों को अपना ऐश्वर्य दिखाना चाहिये।
ये सोचकर जब भगवान निकुंज में बैठे थे और गोपियाँ उनसे मिलने आ रही थीं तब भगवान श्रीकृष्ण अपने चार भुजाएँ प्रकट करके बैठ गए,
जिनके चारों हांथो में शंख,चक्र, गदा,पद्म था।
गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई एक निकुंज से दूसरे निकुंज में जा रही थीं, तभी उस निकुंज में आयी जहाँ भगवान श्रीकृष्ण बैठे हुए थे…
दूर से गोपियों ने भगवान को देखा और बोली हम कब से ढूँढ रही है और हमारे श्रीकृष्ण यहाँ बैठे हुए हैं…
जब धीरे धीरे पास आईं तो और ध्यान से देखा तो कहने लगीं अरे ! ये हमारे श्रीकृष्ण नहीं हैं…
इनकी सूरत तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण की ही तरह हैं, परन्तु इनकी तो चार भुजाएँ हैं… ये तो वैकुंठवासी श्रीविष्णु जी लगते हैं…
सभी गोपियों ने दूर से ही प्रणाम किया और आगे बढ़ गईं, और बोलीं चलो सखियों श्रीकृष्ण तो इस कुंज में भी नहीं हैं,कहीं दूसरी जगह देखते हैं…
ये प्रेम है… जहाँ साक्षात् भगवान बैठे हैं, तो ये जानकर के ये तो श्रीविष्णु जी हैं श्रीकृष्ण नहीं हैं… गोपियाँ पास भी नहीं गईं…
तब श्रीराधा जी वहां पहुंचीं। दूर से ही भगवान ने देखा की श्रीराधा रानी जी आ रहीं हैं, तो सोचने लगे श्रीराधा को अपना ये ऐश्वर्य दिखाता हूँ,परन्तु ये क्या जैसे जैसे श्रीराधा रानी जी श्रीकृष्ण के पास पहुंच रहीं हैं वैसे वैसे उनकी एक एक करके चारों भुजाययें गायब होने लगी और श्रीविष्णु के स्वरुप से श्रीकृष्ण रूप में आ गए, जबकी भगवान ने ऐश्वर्य को जाने के लिए कहा ही नहीं, वह तो स्वतः ही चला गया…
और जब श्रीराधा रानी जी पास पहुँचीं तो भगवान ने पूरी तरह श्रीकृष्ण रूप में आ गए…
अर्थात वृंदावन में यदि श्रीकृष्ण चाहें भी तो अपना ऐश्वर्य नहीं दिखा सकते, क्योंकि उनके ऐश्वर्य रूप को वहाँ कोई नहीं पूछता, वहां तो प्रेम की पुजा होता है… ऐश्वर्य का नहीं…
यहाँ तक की श्रीराधा रानी के सामने तो ऐश्वर्य ठहरता ही नहीं, श्रीराधा रानी जी के सामने तो ऐश्वर्य बिना श्रीकृष्ण की अनुमति के ही चला जाता है…दरअसल प्रेम में ऐश्वर्य नहीं होना चाहिए, बस प्रेम होना चाहिए। प्रेम का स्वरूप स्वयं प्रेम है और प्रेम का आधारशिला प्रेम ही है…
नाग